पेड़ की हड्डियाँ / राजीव रंजन
पेड़ की हड्डियाँ
सड़क किनारे खड़ा वह पेड़
हरा-भरा, सदा मुस्कुराता।
हवा संग कोमल पत्तियाँ जीवन-
संगीत कभी जोर-जोर
से झंकारती, तो कभी धीरे-धीरे
कानों में गुनगुनाती।
न जाने उस पर कितनी ज़िंदगियाँ
महकती, चहकती और फुदकती।
न जाने कितनी साँसों में प्राण
फूँकता वह और खुद धूल फाँकता।
शंकर सा एक बार नहीं,
बार-बार जहर पीता वह,
लेकिन अपना नीलाकंठ
वह नहीं दिखाता।
अन्दर-अन्दर ही वह घुटता है,
तब तक घुटता है, जब तक
अन्दर से वह सूख नहीं जाता।
कल तक दूसरों को प्राण देने वाला,
आज निश्प्राण, निःशब्द खड़ा है।
अब उसकी सूखी पत्तियाँ और
टहनियाँ हवा संग जीवन-
संगीत नहीं, बल्कि मर्मर करती
मौत का चीत्कार सुनाती हैं।
सूरज के असहनीय ताप में,
जो पत्तियाँ और टहनियाँ बचाती
थीं दूसरों को कवच बन, आज
वही सूख कर, टूट कर, जल
कर, उजड़ कर बिखरी हैं,
उसी हवा के कदमों के तले
जिनके संग कभी अठखेलियाँ
करती थीं वह।
बादल गर्जन कर जब डराते थे।
काल बनी काली घटा जब
अनचाहे मेघ बरसाती थी।
बिजलियाँ चमक, जीवन रोशन
करने के बजाए डराती थी।
तब पेड़ की कोमल और मुलायम
पत्तियों की ओट में छुप,
एक मजबूत, कठोर संबल
जो प्राप्त करते थे और
सूरज के असहनीय ताप से
बचने को, जो उसकी शीतल
छाँव के कवच में घुस जाते थे,
वही आज उसे जड़ से काट रहे
और जलाने के लिए उसकी सूखी
टहनियों को, नहीं-नहीं बूढ़ी
हड्डियों को आपस में बाँट रहे।