भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेड़ खड़े रहे / ओम पुरोहित ‘कागद’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरती से थी
प्रीत अथाह
इसी लिए
पेड़ खड़े रहे ।


कितनी ही आईं
तेज आँधियाँ
टूटे-झुके नहीं
पेड़ अड़े रहे ।


खूब तपा सूरज
नहीं बरसा पानी
बाहर से सूखे
भीतर से हरे
पेड़ पड़े रहे !