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पेड़ सूखा हर्फ़ का और फ़ाख़ताएँ मर गईं / रफ़ी रज़ा

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पेड़ सूखा हर्फ़ का और फ़ाख़ताएँ मर गईं
लब ने खोले तो घुटन से सब दुआएँ मर गईं

एक दिन अपना सहीफ़ा मुझ पे नाज़िल हो गया
उस को पढ़ते ही मिरी सारी ख़ताएँ मर गईं

याद की गुदड़ी को मैं ने एक दिन पहना नहीं
एक दिन के हिज्र में सारी बनाएँ मर गईं

मैं ने मुस्तक़बिल में जा कर एक लम्बी साँस ली
फिर मिरे माज़ी की सब हासिद हवाएँ मर गईं

मैं ने क्या सोचा था उन के वास्ते और क्या हुआ
मेरे चुप होने से अंदर की सदाएँ मर गईं

इस तरफ मिट्टी थी मेरे उस तरफ़ इक नूर था
मैं जिया मेरे लिए दो इंतिहाएँ मर गईं