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पेड़ : हम - एक / गुलाब सिंह

(बाँस-वन और बाँसुरी)

ओढ़ कर आकाश का सुख
जागते सोते रहो

बाँस-वन से बाँसुरी तक
साँस का संगीत बुनने,
बाँह-सी शाखें उठीं
उन्मुक्ति का एहसास चुनने,

लौ लगाए धूप से
हल्के हरे होते रहे।

हर हवा के साथ
पत्ते काँपते हिलती हथेली
तने कंधे छू गई
छनकर किरण आई अकेली

और अंधी आँधियों के
हादसे होते रहे।

जड़ों तक रिसते ज़हर के-
साथ, फूले भी, फले भी,
जंगलों-से खुद उगे
खुशबू दिए कुछ को खले भी,

अपनी धरती से कटे
सुलगे धुआँ देते रहे।