पेशे का माली मुन्ना जिल्दसाज / प्रभात कुमार सिन्हा
मुन्ना जिल्दसाज पौधों को पटाकर
सीधा चला आया है मेरे पास
जिल्द लगी पुस्तकों को कन्धे से उतार
सामने रख देता है
मुन्ना मेरे लिये जिल्दसाज है
इन जिल्दों में मेरी स्मृति की खिड़कियाँ हैं
वह संस्कृत काॅलेज का माली है
जहाँ ढाई वर्ष तक बिहार का
एक पुस्तकालय सुलगता रहा
वहाँ मुन्ना किताबों पर जिल्द लगा रहा है
इस काॅलेज की सेवा में काम करते हुए मुन्ना को
चार साल से माहवार नहीं मिला
माली मुन्ना वहाँ पौधों में पानी देता है निकौनी करता है
फूलों की सेवा में निमग्न रहता है
प्राचार्य के टेबुल पर के गुलदस्ते में
रोज ताजा फूल सजाता है
मुन्ना कभी दरभंगा नहीं गया
दरभंगा वाले भूल गये हैं उसे तनख़्वाह देना
दरभंगा के भीसी का ध्यान गरीबों पर नहीं है
बचे समय में मुन्ना काॅलेज के
ग्रंथागार को भी झाड़ता-पोंछता है
आज फिर आया है मुन्ना मेरी किताबों में जिल्द बांधकर
बताता है कि आज वह रिटायर हो रहा है
कहता है कि अब बकाया तनख़वाह नहीं मिलेगा
मैंने कह दिया कि आज हिम्मत बांधकर काॅलेज जाओ
सीधे ग्रंथागार में घुसना
वहाँ की पुस्तकों पर किरासन छिड़क कर आग लगा देना
इन छोटे नालंदाओं की ज़रूरत नहीं है बिहार में
आज ज़रूर आग लगा दो मुन्ना
इसकी लपट दरभंगा वाले भीसी के माथे से
लटकी हुई शिखा तक ज़रूर पहुंचेगी।