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पैमानों की शराब / शक्ति बारैठ
Kavita Kosh से
एक वो जिसकी दीद में गुजरी शब-औ-रातें तमाम थी
आज किसी की हशरतों में गुजरते दिन तमाम है
हर इक निगाह ख़ुमार-ऐ-शब से रंगीन आती थी
हर इक तरफ खाक-ऐ-नशी पिन्हा नज़र आती थी
तरशती सोखियों पर क़यामत उतर आई तमाम थी
आज राहतों पर इतराते नकाहतों का हुजूम तमाम है
वो उन दिनों हुश्न को भी गरज नज़र आती थी
जहाँ भी था में बस रहगुजर पर नज़र जाती थी
नियाज-ऐ-इश्क में नमीं-ऐ-गुफ्तार की सदाएँ तमाम थी
मगर जुबां-ऐ-इजहार के बाबस्ता शर्मो-हया तमाम है
उसकी आदाओ में शराफत दिलफेंक नज़र आती थी
मगर पैमानों की शराब सीधा हलक से उतर जाती थी