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पैरों तले जमीन कहाँ / राजेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
आजकल ये जितने भी बड़े हैं
दूसरों के पाँवों पर खड़े हैं
आपके पैरों तले भी जमीन कहाँ।
कभी खुद फँस गए, कभी इन जालों ने फाँसा है
ये हँसना-मुस्काना, अपने आप को झाँसा है
आप भी बड़े गुर्दे वाले हैं
पाप सर्प है, आप पाले हैं
हो विश्वास जिसपर वो आस्तीन कहाँ।
ये जितने रंगमहलों के बड़े बड़े खिलौने हैं
सच पूछिए तो ये मन के उतने ही बौने हैं
दर्पण तक को तिलांजलि दी है
तब जाकर ये जिंदगी जी है
अपनी शक्ल पर भी इनको यकीन कहाँ।