भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पैली परसा आई पातर, पातर देख हो गई आतर / बुन्देली
Kavita Kosh से
बुन्देली लोकगीत ♦ रचनाकार: अज्ञात
पैली परसा आई पातर, पातर देख हो गई आतर।
दूजी परसा आई दौना, दौना देख हो गई मौना।
तीजी परसा आई भात, भात देख कें जल गऔं गात।
चौथी परसा आई दार, दार देख मचा दई रार।
पाँचई परसा आई कढ़ी, कढ़ी देख मगरे चढ़ी।
छठई परसा आई माड़े, माड़े देख हो गई लाड़े।
सातई परसा आई घीउ, घीउ देख भर गऔ जीउ।
आठई परसा आई बूरो, बूरो देख गई घूरो।
नौवीं परसा आई पापड़, पापड़ देख हो गई खापड़।