पैसा / गोरख प्रसाद मस्ताना
चाँदी की खनखनाहट
स्वर्ण की झंकार
भर देते हैं उल्लास
सूरज उतर आया आँगन में
शशि मुस्काया, झरोखे से
रजत रश्मियों का नर्तन द्वार पे
स्वर्ग में सीढ़ी लगाने कि उत्कंठा
अनंत, असीम,अनवरत
चरण चूमने को आतुर
ऐश्वर्य
किन्तु यह क्या आँखों में अश्रु
बो रहा कौन? बोलो!
क्यों हो मौन!
अवश्य किसी ने झकझोरा है
या स्मृतियों की ताल में शायद
प्रायश्चित का कोई कंकड़ गिरा है
वह सुहाना स्वप्न
जहाँ माँ की थी लोरियाँ
पिता का प्रेरणा
भाई का प्रेम, बहन कि राखी
भाभी का स्नेह
भतीजों को तुतली बोली
बूढ़ी दादी का आशीष
अचानक सब हो गए विमुख
प्रतिकूल क्यों
पूछा नहीं अपनी आत्मा से
डूबा रहा आकंठ केवल बस केवल
चाँदी की चांदनी सुगंध में
उड़ता रहा गर्व का पंख लगाए
लालसाओं के नभ में
देखा नहीं
छूट गई जमीन
अपना गाँव अपना देश
टूट गई पावन रिश्तों भी डोरी
अब पूछता है, यह परिवेश है कैसा
अरे! यही तो है पैसा