भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पैहलॅ निराशा / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँव के बाहर वाला
मंदिरॅ के चबूतरा पर
हर सोमवारी केॅ
सीमरपूजा बखतीं
डूबतेॅ सुरुज
आरो उगतेॅ चान्द केॅ
बीचलका बेरा में
अरदसिया देनें
टकटकी लगैनें
हमरा भरी आँख देखै लेली
खाड़ॅ रहै बाला हमरॅ मीत
आय तोरा वै ठीयाँ नै देखी केॅ
कत्तेॅ निराश होय गेलिये हम्में
शायद तोरा याद नेॅ रहेॅ
भूली भी जाबेॅ पारै छॅ तोंय

कत्तेॅ दाफी तोरा पूछला पर
हम्में कहलेॅ छियौं
कि हम्में सीमरपूजा लेली नै
खाली तोरा देखै लेली
भरी आँख निहारै लेली
ऐतेॅ रहलॅ छी

हे हमरॅ प्राण!
आय तलक
शिव मानी केॅ हम्में
खाली तोरा पूजनें ऐलॅ छियौं
कि जहिया-जहिया शिवॅ पर पानी ढारनै छियेॅ
तहिया-तहिया आँखी में तोरे मूरत घूमी गेलॅ छै।

गठजोडॅ़ में दुलहा बनी केॅ
तोहीं ऐलॅ छै हरदम साथें

आय तोंय नै ऐलॅ छै
तेॅ लागै छै
सुन्नॅ-सुन्नॅ आकाश
सुनसान बेरथ ई संझौती बेरा

किरन निष्प्राण छै
तोरॅ ‘साँवरी’ भी छौं बेजान
बेरथ लागै छै ई नयन-वाण
देहॅ में भरलॅ थकान छै
ठोरॅ पर टंगलॅ परान छै
छिनी गेलै मुस्कान आब
तारा मारै तान आबेॅ

सोचै छियै,
कथी लेॅ सजली छेलियै एतेॅ?
गल्ला में ई मोती के माला
कपारॅ परकॅ लाल गोल टीक्का
सब के सब उदास छै
कत्तेॅ निराश छै।
आय कत्तेॅ मिहनत करी केॅ
सँबारल’ छेलियै
आपनॅ ई सूनॅ अजबारी माँग
जेकरा देखी केॅ
बरबस कही उठै छेलौ तोंय
कि भरी देवौं हम्में
सूनॅ यै सीथी में प्यारॅ के रंग
नै छोड़बौं संग
आय हमरॅ आना बैरथ होलै प्रीतम
झांझर के झन-झन
घन्टा के टन-टन
तोरा सम्मुख रहला पर
कत्तेॅ बढ़ियाँ लागै छेलै
गोड़ॅ के पायल खनकै छेलै
कानॅ के झुमका झनकै छेलै
कि हाँसै छेलै सगरो जहान
आरो आय तोंय नै छॅ
तेॅ देखॅ नी
यें सभ्भैं मिली केॅ हमरा टीसै छ
कनाबै छै
अंग-अंग दुखाबै छै
यें सभ्भैं मिला सताबै छै
लागै छै
सब ठठाय केॅ हाँसतेॅ रेॅहेॅ

कि सुखला पता नांकी देहॅ के जारतैं रेॅहेॅ
मंदिरॅ के दीवार
ऐलॅ सब लोग
कुछछू नै सूझै छै हमरा।
तोहीं बताबॅ पिया
मंदिर के चौतरफा सीढ़ी में सें
कोन सीढ़ी होय केॅ हम्में जइयै
सभ्भे टा सीढ़ी पर भंख लोटै छै
लागै छै खाली साँपे-साँप रेॅहेॅ

निराश आब हम्में
लौटी रहलॅ छी प्रीतम
तोरा याद होथौं
केन्हौं केॅ भूलेॅ नै पारै छॅ तोंय
कि जबेॅ हम्में जाय के बात कहै छेलियै
तेॅ डबडबाय उठै छेलौं तोरॅ आँख
आरो तोंय कहै छेलौ
कि तनिटा आरा ठहरॅ
पल दू पल लेली ही सही
मतुर आरो टहरॅ
...आरो यहेॅ रं हम्में
कतेॅ खिन रूकी जाय छेलियै
आरो तोंय कखनू हमरॅ उलझलॅ बालॅ केॅ सुलझाबै छेलौ

थकलॅ जानी केॅ अंग-अंग सहलाबै छेलौ
कखनू आपनॅ माथॅ हमरॅ जांधी पर धरी केॅ
नै जनौं की-की तोंय सोचै छेलौ
की-की निरयासै छेलौ हमरॅ मुँहों में
की-की खोजै छेलौ हमरॅ आँखी में
आरो कहै छेलौ
कि तोरा निहारतेॅ मन कैन्हें नै भरै छै
तनियो देर लेली कैन्हें नै ई आँख
वंचित होयलेॅ चाहै छै देखै के सुख सें।
हमरा याद छै
कि ऐन्हां में हम्मू तोरॅ आँख रॅ गहराई में
बेसुध डूबी जाय छेलियै
की कहियौं हे मनमीत!
तोरा निरयासी केॅ ताकतें देखी केॅ
तोरॅ आँखी के गहराई के थाह लैके कोशिश में लगै
कि आकाश उलटी केॅ कुइयां होय गेलॅ छै
आरो पनघट पर खाड़ी छै साँझ साँवरी
अथाह जानी केॅ भी धोंस दैलेॅ व्याकुल।

तोरा जरूर याद होथौं
कि बेसुधी के ऐन्हें बेरा में
सीमरपूजा के बाद
तोहें हमरा असकल्ली छोड़ी केॅ जाबेॅ लागलॅ छेलौं
आरो तोरा जैते हम्में वहेॅ रं ताकतें
रही गेलॅ छेलियौं
जे रं पछियें आकाशॅ में
डूबी रहलॅ लाल सूरूज के मूं केॅ
एकटक ताकै छै
साँवरी साँझ
ई कहतें हुवें
कि फेरू कहिया मिलभौ?