भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पैहलोॅ बेर वसन्त सिहरलै / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पैहलोॅ बेर वसन्त सिहरलै!
पीत वरण साड़ी सहलाबै
छै युवती के अंग,
एक गुदगुदीं हिलकोरै छै
मन केॅ, बनी उमंग
आमोॅ के पैहलोॅ मंजर पर
सुसुम-सुसुम रं रौद उतरलै!

अर्पेनोॅ सें चौंक पुराबै
छै भौजीं मलकी केॅ
भैया केॅ, तकरार बिसारी,
ताकै छै ठुनकी केॅ
निपट उदासी के महफिल में
पोर पोर हुलास पसरलै!

हुलसैलोॅ छै ठूँठ
भरीसक याद पिछुलका ऐलै
समझी कागा के संदेशा
दुलहिन मन मुस्कैलै
सबके आँखी के डोरा में
टपटप ललका रंग उपकलै!