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पै-ब-पै हादिसों का है इक सिलसिला हादिसों से मैं बचकर किधर जाऊँगा / ज़ाहिद अबरोल

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पै-ब-पै हादिसों का है इक सिलसिलः, हादिसों से मैं बच कर किधर जाऊंगा
धूप की ज़द में आती हुई छांव हूं, देखना! पल दो पल में बिखर जाऊंगा

चार सू दिल के आंगन में छिटकी हुई, आस की चांदनी में नहाता रहा
क्या ख़बर थी कि मैं झूमते झूमते, यास की तीरगी में उतर जाऊंगा

जी में है इक खिलौना सा बन कर कभी, एक नन्हे से बच्चे का मन मोह लूं
जानता हूं कि मा‘सूम हाथों से मैं, टूट कर रेज़ः रेज़ः बिखर जाऊंगा

हर शनासा नज़र देखती है अगर, मुझको अपने अलग ज़ाविये से तो मैं
एक दिन अजनबी बन के हर राह से, आशनाओं से बच कर गुज़र जाऊंगा

तश्नगी का समुन्दर है यह ज़िन्दगी, इस की हर लहर तलवार से तेज़ है
आस की नाव के डूब जाने पे भी, हौसला है मुझे पार उतर जाऊंगा

मुझको “ज़ाहिद” इस उखड़े हुए दौर में, आइनों का मुहाफ़िज़ बनाते हो क्यूं
नर्म-ओ-नाज़ुक तबीअत है मेरी कि मैं, पत्थरों के तसव्वुर से डर जाऊंगा

शब्दार्थ
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