भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पोखर तक में माँ बसती है / सुरजीत मान जलईया सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे तो इस रक्त पुंज में माँ बसती है
घर आँगन पनघट तक में माँ बसती है

जिनको प्यारा शहर लगा वो शहर गये
गाँव की सौंधी खुशबू में माँ बसती है

खोलोगे जब नयन क्षैतिज ने नीचे तुम
खेतों से खलियानों तक में माँ बसती है

टीका टीक दुपहरी में जब थक जाओगे
फैली दूर तलक छायां में माँ बसती है

शहरों की तो नदियों से भी अच्छी है ये
गाँव की तो पोखर तक में माँ बसती है