पोखर / मनोज चौहान
बजूद
खोते जा रहे हैं पोखर
बुजुर्गों की
दूरदर्शी सोच के परिचायक
जिनका होना
प्रतीक था
खुशहाली और समृद्धि का।
गाँव के बीचोंबीच
होते थे स्थित
ताकि होता रहे रिसाव
धरती के भीतर से
और बनी रहे नमी
कृषि योग्य भूमि की।
खिले हुए कमल
और उनके गोलाकार पत्तों से
ढकी उपरी सतह
मछली, मेंढक और
बगुलों की शरणस्थली।
संध्याकाल के समय
इनके इर्द – गिर्द
गप-शप करते
बड़े – बुजुर्ग
और क्रीड़ा करते
बच्चों की टोलियाँ
गाँव की व्यस्तत्तम जगह।
समर्थ थे ये
पशुओं के लिए पेयजल
और कपड़े धोने आदि
अनेक क्रियाओं के लिए
या फिर गाँव में आगजनी जैसी
भीषण घटनाओं का सामना
करने को तत्पर
करते थे प्रतिपूर्ति
बालपन के लिए
स्विमिंग पूल की।
आज वक्त ने बदली है करवट
अधिकतर पोखरों का भराव कर
तैयार कर दिए गए हैं
सामुदायिक भवन
या फिर पंचायत घर
ईका – दुक्का कुछ जगह
संघर्ष करते
अपने बजूद के लिए
शिकार हैं अतिक्रमण का।
गाँव अब हो गए हैं विकसित
शामिल हो गए हैं
शहरीकरण की होड़ में।
विकास और सुविधाओं की
बलिवेदी पर कुर्बान
धरती के गर्भ में समा चुके
पोखरों की चीत्कार
अब नहीं सुनना चाहते
बहरे हो चुके गाँव!