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पोस्टकार्ड का डर / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
तार आने का समय कब का बीत चुका
हिफाज़त की ख़बर भी अब तो फ़ोन पर
फिर भी कुछ इलाकों में
वो भी नहीं
दूर-दराज़ से काम की तलाश में निकले लोग
इस या उस देश में
इतने ग़रीब कि दो जून की रोटी मुहाल
एक-दो नहीं हज़ारों-हज़ार
पीछे छोड़ आए अशक्त कुटुम्ब
सीने उनके इस्पात के नहीं
कर नहीं पाते जज़्ब दुखों में ख़ुद को
उनकी आँखों से झरती रहती है नीली लकीर...
बहता है जिनसे नमक भरा दुख
भय और भक्तिभाव में खड़े हैं
लडख़ड़ाते वे
डाकिया पहुँचता नहीं
उनके दुर्गम ठिकानों पर
वे एक अदद चिट्ठी के लिए चढ़ते हैं पहाड़ अमूमन रोज़
वे कोने से फटे हुए पोस्टकार्ड से डरते हैं
वे काँपते हुए चिट्ठियाँ थामते हैं