पौणें / सुरेश स्नेही
जब ज्वानि छई, तब भलि लगदि छै पौणैं,
अब त बुढ्या ह्वेग्यों, न दॉत,न कन्दूड़,न आखां छन रयां,
अरे दगड्यों, अबत ज्वानु खुणि ही रैग्या पौणैं ।
अहा, उ पाथलि मां दाल भात, चौपड़ मारिक भियॉं मा बैठणु,
किबलाट मच्युॅ रन्दु छौ सबकु , सरोळु रन्दु छयु खाणु बांटणु,
अब त ‘‘टैण्ट‘‘ ह्वेगिन, आदत ह्वेगि सबुकि, खड़ाखड़ी खाणैं,
अरे दगड्यों, अबत ज्वानु खुणि ही रैग्या पौणैं ।
अहा व बरडाली की घ्यूकि माणि,जमानन कख समालि कुजाणि,
अब त रीति रिवाज बी हरचिगिन, माया मोह बी ह्वेगि विराणि,
बस अब तक मजा च ऊॅकी,जू जाणदन दारू पीणैं,
अरे दगड्यों, अबत ज्वानु खुणि ही रैग्या पौणैं।
अहा उ स्याल्युॅ कु गालि देणु, काकि, बोड्युॅ कु मांगल लगौणु,
अब त मांगल्वि़ बी कैसेट ह्वेगिन, स्याल्यू की गाली त हरचीगिन,
अब त रंगत अयींच डीजे मा नाचणै, अरे दगड्यों, अबत ज्वानु खुणि ही रैग्या पौणैं
अहा तबैरि ब्योलि विदा होन्दि छई, त दणमण रोन्दि छई,
अबत ब्योली,ब्योला कु हाथ पकड़ि जान्दि, ब्वेबाबू तैं डीसू और बन्दौन्दि,
हरचीगि नौन्यूकी वा आदत अब खुदेणैं,
जादा क्या बोन दगड्यों, अबत ज्वानु खुणि ही रैग्या पौणैं।