कुछ अनलिखी नज्मों के संग 
अभी जरा सी आँख लगी ही थी 
कि तुम्हारा ख़त मिला 
ख़ामोशी का ख़त … 
प्यार कब खामोश हुआ है भला …. ?
पिछली बार भी जब तुम बरसे थे 
तब भी भीगी थी मैं 
और आज भी … 
तेरे अक्षरों के साथ -साथ 
इक अनलिखी नज्म सी … 
क्या कहा … 
मैं बहुत अच्छी हूँ … ?
अच्छा कोई नहीं होता 
अच्छा तो प्यार होता है 
जो सब को जीने लायक बना देता है 
मुझे यूँ न देख … 
ये अक्षर तुम्हारे ही हैं 
जो मेरा हाथ पकडे मुझे भी 
थोड़ी ऊंचाई पर ले आये हैं … 
मेरी आँखों में तो 
न अब कोई सपने हैं 
न आलिंगन में कोई उडीक 
इन अक्षरों को पत्थर हुए 
तो बरसों बीत गए … 
जब मैंने अपनी अनजन्मी चीखों को 
फ्रेम कर दीवारों पर टांग दिया था … 
तुम अब इन चीखों में 
 रंग भरने की उम्मीद मत रखो … 
बस इस रिश्ते को 
कायम रखने के लिए 
तुम सच का पानी डालते रहना 
मैं भी विश्वास के आंसू डालती रहूंगी … 
ताकि हमारे जीने लायक कोई पौधा 
खड़ा हो जाये …