भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्याज खाने की तलब / शुभम श्री

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह भरसक अपने धुले हुए कपड़े पहन कर गया
गोकि शनि बाजार में पुराने मैले कपड़े पहनना बेहतर होता मोल-जोल के लिए

आभिजात्य विद्रूपता को उसी तरह ढक देता है
जैसे ग़रीबी ईमानदारी को

उसने प्लास्टिक बोरी पर विराजमान प्याज के पहाड़ से
बहुत सतर्क बेपरवाही से दो बड़े प्याज लुढ़काए

लगभग उस कुत्ते के पैरों तक जो एक ख़ूब बड़ा-सा लाल टमाटर खा रहा था

उसका मन हुआ प्याज छोड़ पहले कुत्ते को एक लात मारे और आधा टमाटर बचा ले

धड़कते दिल के साथ वह आगे बढ़ा
मानो झोले में प्याज नहीं बम रखे हों

उसके और प्याज वाले के बीच मसाले, गुब्बारे, जलेबी, हरेक माल दस रुपया के ठेलों जितनी दूरी थी

अचानक सुरक्षित-सा महसूस करता हुआ वह फलों का मुआयना करने लगा
इस इन्तज़ार में कि फल ख़रीदने वालों को देख सके

कई मिनट बाद उसने एक आख़िरी निगाह स्टीकर लगे सेबों पर डाली
मानो वे प्लास्टिक के हों

पूरे रास्ते वह कच्चे प्याज की गन्ध को सोचता रहा

कभी उसके घर में ईंट पर चौकियाँ रखकर हर कमरे में प्याज बिछाया जाता था
वह किसी दूसरी ही ज़िन्दगी की बात थी