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प्यार की अनसुनी आहों से हजारों नग़मे / आशुतोष द्विवेदी
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प्यार की अनसुनी आहों से हजारों नग़मे
कल बरसते थे निग़ाहों से हजारों नग़मे
खुशबुएँ सिर्फ रह गयी हैं और कुछ भी नहीं,
गुज़र गए इन्हीं राहों से हजारों नग़मे
लाख चाहा कि चले आयें पर नहीं आते,
लौटकर उसकी पनाहों से हजारों नग़मे
कोई बता दे भला और कहाँ जायेंगें,
छूटकर संदली बाहों से हजारों नग़मे
जब भी आता है ख्याल अपना तो छिप जाते हैं,
मेरे सीने में गुनाहों से हजारों नग़मे
मेरे वज़ूद पे' छा जाते हैं तारे बन कर,
दिल की बिखरी हुई चाहों से हजारों नग़मे
एक वो वक़्त भी आया कि खड़े रहते थे,
मेरे खिलाफ गवाहों से हजारों नग़मे