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प्यार की सरहदें / महेश सन्तोषी

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कितनी लम्बी हैं प्यार की सरहदें?
कहीं जाके खत्म ही नहीं होतीं!
भूल जाते हम पास में हैं अस्ताचल के
कहीं तुम, पास में यहीं खड़ी होतीं।

दूर तक ले आये हम तुम्हारे अभावों को,
उम्र के आगे कोई फासले नहीं जाते।
शून्यताएँ ही जाती हैं आगे अस्ताचल के,
प्यासी परछाइयों के काफिले नहीं जाते।

एक सिलसिला था किसी दर्द का,
जो उम्र की शाम तक तुम्हारे नाम पर रहा।
अब वक्त ही बाकी नहीं बचा
व्यथाएँ बटोरने को
बाकी बचा सारा का सारा दर्द
हमारे नाम पर रहा।

हमने पीड़ाएँ ढो लीं
आँसू ढो लिये, यादें ढो लीं
आगे भी चमकते हम तुम्हारी परछाइयाँ,
अगर आँखों में रोशनियाँ बची होतीं।
भूल जाते हम पास में हैं अस्ताचल के
कहीं तुम पास में यहीं खड़ी होतीं।

और कितना खोजते हम तुम्हें?
रास्ते थक गये, आँखें थक गयीं, सांसें थक गयीं।
एक ही ज़िन्दगी थी वह भी बीत गयी
कौन देगा दोबारा ऊर्जाएँ नयी? सांसें नयीं?

आज हम सरहदों पर खड़े हैं
बुझे-बुझे, थके-थके।
पर सारी उम्र तुम्हारी कमी बराबर बनी रही,
ज़िन्दगी भर हम तुम्हें पूरा जी ही कहाँ सके?

सीमाएँ आँखों की होती हैं
आकाश की नहीं होतीं,
उम्र से छोटी ही होती हैं यादें,
यादें उम्र से बड़ी नहीं होती,
भूल जाते हम पास में हैं अस्ताचल के
कहीं तुम पास में यहीं खड़ी होतीं।