प्यार के खण्डहर / महेश सन्तोषी
साथ में नहीं रहा अब कोई भी प्यार,
शेष रह गये हैं सिर्फ प्यार के खण्डहर।
वर्षों देते रहे जो हथेलियों की धूप,
उनकी परछाईयों तक में अब कोई छांव नहीं रही,
जिनके नाम से ही कभी सिहर जाते थे प्राण,
उन गुमनामों की अब कोई हलचल तक नहीं।
भरे रह कर भी खाली ही रहे सांसों के घर,
जैसे हमें किसी की प्रतिज्ञा बनी रही हो उम्र भर।
साथ में नहीं रहा अब कोई भी प्यार...
बाज़ार में कहीं नहीं बिकता बिता हुआ वक़्त,
हम कभी खरीद ही नहीं सके खोया हुआ अतीत,
एक सपना बन कर रह गया, भोगा हुआ सच,
ज़िन्दगियाँ सिमट गईं एलबमों के बीच।
दूर से घूरती रहीं पास पड़ी तस्वीरें,
सिले हुए ओठों पर दबे रहे आहत स्वर।
साथ में नहीं रहा अब कोई भी प्यार
आसपास घेरे हैं भीड़ के, तनावों,
आखिरी अंधेरे हैं उम्र के पड़ावों के,
देख नहीं पाये हम क्षितिज कहाँ होते हैं?
प्यार के दिखावों के प्यार के भुलावों के।
सांसों की सरहद पर दर्द सौ इकट्ठे हैं
और हम अकेले हैं उम्र की ढलानों पर
साथ में नहीं रहा अब कोई भी प्यार
शेष रह गए हैं सिर्फ प्यार के खण्डहर।