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प्यार के घरों में / अश्विनी कुमार आलोक
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चलो, मीत!
प्यार के घरों में।
नंगे पहाड़ों में
नदिया की धारों में
दूब हरी इतराकर
हंस दे बहारों में
घंटी बजे मंदिरों में।
छोटा सा मन अपना
आशा भी छोटी सी
विस्तृत वागर्थों की
भाषा भी छोटी सी
सपने हों अपने परों में।
भोगेंगे ऊंचाई
गहराई में आयें
वन प्रांतर घूम घूम
गंधिल हो मुस्कायें
अपनापन हो अनुचरों में।
जीतें तो प्रेम सिर्फ
प्रेम सिर्फ हारें
मिथिला के पर्ण कुसुम
रघुवर बुहारें
गगन झुके स्वयंवरों में।