भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्यार के दो बोल सुनकर अज़नबी खुलने लगा / राम नारायण मीणा "हलधर"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्यार के दो बोल सुनकर अज़नबी खुलने लगा
आंसुओं का एक दरिया आँख से बहने लगा

एक सूरज की सगाई चाँद से क्या हो गई
अब सितारों की गली से फ़ासला रखने लगा

दर्द घुटनों का मेरा ये देखकर जाता रहा
थामकर उंगली नवासा सीढियाँ चढ़ने लगा

एक लमहा भी ख़ुशी ठहरी नहीं नज़दीक की
दूर का पर्वत दुखों में हमसफ़र बनने लगा

अम्न की इन बस्तियों को ऐ ख़ुदा ये क्या हुआ
अब मैं बच्चों को झगड़ता देखकर डरने लगा

पर्वतों की चोटियाँ शोले उगलने लग गईं
आग का दरिया किनारे तोड़कर बहने लगा

सूद के अवशेष बिखरे हैं अभी खलिहान में
क़र्ज़ लेकर फिर बुवाई खेत में करने लगा