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प्यार के सतरंगे प्रिज़्म के लिए दौड़ / मनीषा जैन

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जब प्रेम में डूबी हुई थी वे
तब पंखो की फडफडाहट रेंगती थी
बदन पर उनके

सदियों से कोई खेल खेलता है शिकारी
फंसाता है जाल में
और बांधकर भावनाओं की गठरी में
ले जाकर पटक देता है
अकेलेपन की चट्टानों के शिखर पर
जहां से नीचे देखने पर
काँपती है रूह उनकी

कि हवाओं को अभी रूकना होगा
उनका मर्सिया पढ़ने से पहले
कि सदियों से इसी तरह
हलाल होती रही हैं स्त्रियाँ
कि कौन कर सकता है
उन्हें सिर्फ प्यार
प्यार के संतरंगे प्रिज़्म के लिए
दौड़ती रहती है वे
फिर रंगहीन होकर खत्म होता है
आँख का पानी
क्या अब प्रेम की संभावनायें
क्षीण होती जा रही हैं ?