आज मैं आधुनिक नारी
होकर भी तुम्हारी टूटी प्रत्यंचा हूँ
सिर पटकती हूँ किनारों पर
जहाँ हम तुम मिले थे
पहली बार। बार-बार
जोहती हूँ बाट मेरे प्यार
पलक पाँवड़ों को बिछाये
खड़ी प्रतीक्षारत, खोले द्वार
मैं तुम्हारे प्यार में पागल
कोसने देती, रही फटकार खुद को
जब भी आते हो अचानक
क्यों मैं जाती हार?
समर्पित होने को तैयार
पिघलता है अहम् सारा
मूक स्वाभिमान
तोड़ पाती क्यों न मैं अनुबंध?
भाल में अंकित किये
नियति ने क्यों छल छंद?
जीत जाओ मनु
जाऊँ मैं भले ही हार
यह भी मुझे स्वीकार
तुम्हारी जीत मेरी जीत
तुम्हारी हार, मेरी हार
क्योंकि अक्षुण्ण मेरा प्यार
प्यार भीगी मैं, सुकोमल नार
प्यार जीतेगा हमारा
है मुझे विश्वास
युग युगों की प्यास लेकर
लौट आओगे, हमारे पास।