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प्यार से अपरिचय तक / महेश सन्तोषी

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कल तक जो सांसों के साथ थे,
अब अपरिचितों से निकलते हैं साथ से,
प्यार से अपरिचय तक भी जाते हैं कुछ रास्ते।

किसी की धड़कन बनने में उम्र गुजर जाती है,
पर अजनबी बनने में कुछ वक़्त ही नहीं लगता,
दिलों से होकर जाते हैं जो रास्ते,
कब सिमट जाये रास्ते में, कोई कह नहीं सकता
अनकहे ही रह जाते हैं कभी-कभी जीवन भर
प्यार की पगडंडियों के हादसे।
प्यार से अपरिचय तक भी जाते हैं कुछ रास्ते।

हमने जहाँ हथेलियाँ झुलसा लीं, हाथ झुलसा लिये
अपना ही शहर था, थीं अपनी ही बस्तियाँ
पर ताश के घर नहीं होते प्यार के घर
बार-बार नहीं रचतीं हल्दी से हथेलियाँ।
जो कल हमारी धड़कन थे, प्राण थे
अब न हमें जानते हैं, न पहचानते
प्यार से अपरिचय तक भी जाते हैं कुछ रास्ते