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प्यार / यतींद्रनाथ राही

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है प्रभाती का समय यह
क्यों अँधेरा छा रहा है?

चार पल ही बैठ जाएँ
प्यार से दो बात करलें
कुछ कहें, मन की हमारी
कुछ तुम्हारी पीर हर लें
इस उमस इस कश्मकश में
तुम तने
कुछ हम तने हैं
इसलिये ही तो नहीं ये
ज़िन्दगी के पल बने हैं?
किस दिशा की ओर जाने
रथ हमारे जा रहे हैं।

ये हवाएँ ये फिज़ाएँ
वृक्ष-पांदप ये लताएँ
पर्वतों घाटी-कछारों
निर्झरों की भंगिमाएँ
बीज के उर से उभर कर
अंकुरण जो कह रहा है
प्यार है
जो हर किरन में
ज्योति बन कर बह रहा है
शून्य की निस्तब्धता में
प्यार ही तो
गा रहा है।
5.9.2017