प्यास से मरती एक नदी / महमूद दरवेश / सुरेश सलिल
यहाँ एक नदी थी और उसके दो किनारे थे
और एक आसमानी माँ
जिसने बादलों से टपकते क़तरों से इसकी परवरिश की
एक नन्हीं नदी
अहिस्ता-अहिस्ता बढ़ती हुई
पहाड़ की चोटियों से उतरती हुई
गाँवों और खेमों को
किसी ख़ूबसूरत-ज़िन्दादिल मेहमान के मानिन्द
निहाल करती हुई
घाटी को कड़ैंल और खजूर के दरख़्त बख़्शती हुई
और साहिलों पर
रात की मौज़मस्ती में डूबे हुओं से
अठखेलियाँ करती हुई,
‘पियो बादलों का शीर
पिलाओ घोड़ों को पानी
और उड़ जाओ येरूशेलम, दमिश्क ।’
कभी अगलों से मुख़ातिब
बहादुराना लहजे में गाती लहक-लहक ।
यहाँ दो किनारों वाली एक नदी थी
और एक आसमानी माँ
जिसने बादलों से टपकते क़तरों से इसकी परवरिश की
मगर उन्होंने इसकी माँ का अपहरण कर लिया
लिहाज़ा, पानी की कमी से
प्यास से छटपटाते
दम तोड़ दिया इसने
आहिस्ता आहिस्ता !...
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल