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प्यास / अमरजीत कौंके

प्यास देह की बुझती
पर मिटती नहीं कभी
नहीं बुझने देतीं नदियाँ
बहती हैं जो मेरे इर्द गिर्द

चहचहाते परिन्दे
जो चहचहाट अपनी से
जगाते हैं मेरे भीतर उत्तेजना
नीर नदियों का छलकता
लहरों में तबदील होता
कभी आसूँओं में
कभी नटखट हँसी में बदलता

यह खिलखिलाती हँसी
यह उत्तेजना भरी
सिसकियों की आवाज़
पानी की लहरों का संगीत

फिर मेरे भीतर
प्यास जगा देता
मैं नदी के नीर से
घूँट भरता

प्यास बुझती
कुछ पल के लिए
लेकिन फिर जाग पड़ती
कुछ क्षणों के बाद

प्यास मिटती नहीं ।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा