प्रकाश-संश्लेषण / नेहा नरुका
महीनों से एक हवाबन्द डिब्बे में रखी पुरानी मूँग को जिस तरह मिला पानी, मिली वायु, मिला प्रकाश, मिला समय ठीक उसी तरह तुम मुझे मिले …
मगर ठहरो इस कविता में तुम्हारे अतरिक्त एक ‘अन्य’ भी है
और वह इस अँकुरित मूँग को खा जाना चाहता है, जबकि उसे ज़रा-सी भी भूख नहीं …
दरअसल उसे खाने का बहुत शौक़ है, वह दिन-रात खाया करता है और कण्ठ तक आत्मविश्वास से भरा हुआ है
‘भूख न होने पर भी खाना’ हिंसा है’, यह ज्ञान मैंने शेर से लिया है, हालाँकि मैं शेर से सिर्फ़ चिड़ियाघर में मिली हूँ
इस समय जिस शहर में बैठकर मैं लिख रही हूँ, उस शहर में भूखमरी फैली है और
वह कह रहा है: भूख ख़राब चीज़ है !
इस तरह औरों की भूख उसके ज़ेहन में वस्तु की तरह निवास कर चुकी है
भूख की ख़राब आदत से लोगों को बचाने के लिए उसने दुकानें खोली हैं, अस्पताल खोले हैं, खोले हैं धार्मिक स्थल
वहाँ भूख का व्यापार हो रहा है, भुखमरों को भूख रोकने की टेबलेट बाँटी जा रही है, लम्बे-लम्बे वक्तव्य दिए जा रहे हैं, मंत्रजाप हो रहे हैं …
मूँग को वह खा चुका है !
और अब मेरे शहर को वह खा रहा है —
तुम इस शहर को भी थोड़ा पानी दो !
तुम इस शहर को भी थोड़ी वायु दो !
तुम इस शहर को भी थोड़ा प्रकाश दो !
तुम इस शहर को भी थोड़ा समय दो !
मैं चाहती हूँ मेरा शहर वनस्पतियों की तरह प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न करे
मेरा शहर आत्मनिर्भर बने
और स्वयं को उस ‘अन्य’ से बचा ले, जिसने इस कविता को ‘प्रेम कविता’ बनने के सुख से वंचित कर दिया ।