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प्रकाश / नरेश अग्रवाल

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हर अंधेरे की भूख
कि उसे केवल प्रकाश चाहिए।
अपने अंतिम क्षणों तक भी
आंखें मूंदना नहीं चाहता कोई
प्रकाश हमें थोड़ा सा मिला
यही हमारा दुख है।
मेरी सारी गतिविधियों में शामिल है प्रकाश
यह मेरे साथ उठता और बैठता हुआ।
चाहे कितना भी अंधेरा न हो जाएं
गुम हो जाएं सारी बत्तियां
एक अंधकार चारों ओर जैसे पानी के नीचे हम दबे हुए
फिर भी हम तड़पेंगे आंखें खोलने के लिए
मैं इसी तड़प को देखता हूं दिन-रात
कुछ है जो मेरे भीतर
जो अपना मार्ग ढूंढ़ता है
और ये शब्द उसी के माध्यम से
अपनी आंखें खोलते हैं कागज पर।