भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रकीर्ण / श्रृंगारहार / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
Kavita Kosh से
पडुआक वधू - ओढ़ि आवरन आभरन सुवरन कति छवि मंति
हरलि हमर रसिक क हृदय रंगिनि के रसवंति?।।1।।
कर बसि, भुज धरि, संग बसि, गुप चुप नित बतियाथि
केहन रंगिनी संग लय प्रिय न समक्ष लजाथि।।2।।