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प्रकृति-स्तवन / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
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मूल चूल धरि धरनि ई रूप जनीक अनूप
जयतु प्रकृति आकृति कलित दिशा-कला अनुरूप।।1।।
अव्यक्तहु छवि व्यक्त जे प्रकृतिहु विकृति बनैछ
द्वैत भाव भरि अगुनकेँ जग-पट सगुन बुनैछ।।2।।
काल - दिशा दुइ बिन्दुकेँ एक रेखमे लेख
स्वयं प्रकृति जड़-जंगमा, विद्या-ऽविद्या देख।।3।।
बिन्दु-बीज, आकृति-विकृति, स्वर-व्यंजन, भू-स्वर्ग
मूल एक, व्याकृति प्रकृति अनुस्वार स-विसर्ग।।4।।
जननी, गृहिणी, स्वामिनी, दासी, सरसि उदासि
भुक्ति-मुक्तिदा प्रतिपदा प्रकृति नवनवा बासि।।5।।