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प्रकृति और तुम / नीरजा हेमेन्द्र

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अब हो रही हैं /ऋतुएँ परिवर्तित
शनै...शनै...शनै...
परिवर्तन सृष्टि का विधान है
शश्वत् है, अटल है, अभेद्य है
प्रकृति और पुरूष भी आबद्ध हैं
प्रकृति के नियमों से
प्रकृति जो पुरूष की सहचरी है,
सहभागी है, अर्द्ध अस्तित्व है
 तब भी करता है वह प्रकृति को
आहत्/मर्माहत्
प्रकृति कभी नही करती उसका प्रतिकार
प्रतिवाद या कि विद्रोह
नदी का रूप धर
वह सागर के सागर के समीप
बहती चली जाती है
नैसर्गिक आकर्षण में आबद्ध
वह अपने हृदय में रखती है
विश्व द्वारा प्रक्षेपित कलुषताएँ
वह छोटी लताओं का रूप धर
वृक्षों के इर्द-गिर्द उग आती है
सहचरी -सी
वह उसकी ओर अग्रसर होती है
वृक्ष अपनी वृहदता पर
करता है मिथ्या अभिमान
वह होता है गर्वित
लताएँ वृक्ष से अपना शाश्वत् मोह
छोड़ नही पातीं
एक दिन वह वृक्ष को ढ़ँक लेती हैं
वृक्ष लताओं के अस्तित्व में
हो जाता है समाहित
वहाँ वृक्ष नही /दृष्टिगोचर होतीं हैं
सिर्फ लताएँ
प्रकृति ने अपने समर्पण से
प्रमाणित किया है कि प्रकृति
पुरूष के मिथ्या अभिमान को
तिरोहित करती थी/ तिरोहित करती है
तिरोहित करती रहेगी।