प्रकृति और पुमान / प्रताप नारायण सिंह
आधी आबादी हूँ
आधी धरती और
आधे आकाश की अधिकारी हूँ .
कब तक
बहला -फुसला कर
डरा- धमकाकर
अपने भावनात्मक प्रपंचों के जाल बिछाकर
वंचित रखोगे मुझे
मेरे अधिकारों से?
कब तक स्वार्थवश
स्वरचित विभूषणों के कुएँ में
मेढ़क की तरह तैरने को
बाध्य करते रहोगे ?
मैं विचरूँगी स्वच्छन्द …धरती के अपने हिस्से में
मैं उडूँगी उन्मुक्त.... आकाश के अपने हिस्से में
नहीं बाँध पाओगे मेरे पैरों को …
नहीं काट पाओगे मेरे पंखों को.
मैं प्रकृति हूँ और तुम पुमान
सृष्टि और सृजन में
जो भागीदारी तुम्हारी है वही मेरी भी.
मैं प्रेम करना चाहती हूँ तुमसे
जुड़ना चाहती हूँ तुमसे
परन्तु
वैसे नहीं जैसे लता, वृक्ष से जुड़ती है …आश्रय के नाम पर नहीं
वैसे नहीं जैसे प्रजा, राजा से जुड़ती है... रक्षा के नाम पर नहीं
वैसे नहीं जैसे मनुष्य, ईश्वर से जुड़ता है… पालन के नाम पर नहीं
अपितु उस तरह
जैसे पवन के बहाव में वृक्ष की दो शाखाएँ मिलती हैं
जैसे सूर्यमुखी से उषा की किरनें मिलती हैं
जैसे रात में , चाँदनी धरती से मिलती है.
मैं तुमसे कुछ भी नहीं माँग रही
मैंने तो दिया ही है सदैव
अगर कर सको तो
अपना पुरुषत्व ऊँचा कर लो
और पा लो मुझे किसी रूप में।