प्रकृति में चेतना / अर्चना कोहली
सृष्टि के प्रत्येक अवयव में अव्यक्त-सी ख़ुशी और वेदना है
अप्रतिम रूप-रंग-सुर की प्यारी-सी ही एक संरचना है।
देखकर उन्हें कभी आनंद तो कभी विषाद की तरंग उठे
धरा से ले अंबर तक निरुदेश्य नहीं ईश की कोई संकल्पना है॥
विस्तृत व्योम पर मेघ की विभिन्न आकृतियाँ नज़र आती
सूरज की सुनहरी किरणों से लाल-सतरंगी वह बन जाती।
मानो एक अद्भुत चितेरे ने विस्तृत नीले कैनवास को फैलाया
नटखट किशोरी जैसे शरारत से लाल-पीला रंग उसपर गिराती॥
अंबर से जलधि से भरे नीर-कोश से धरा पर जल राशि गिरती
मानो सद्य स्नाता के केशों से जल-बूँदें धीरे-धीरे हैं टपकती।
तभी तो हरे-भरे गलीचे से सुंदर हमारी वसुधा हो गई सुसज्जित
जैसे एक नवयौवना ओढ़कर हरित साड़ी प्रिय मन में मिलती॥
कल-कल की मधुर ध्वनि से मानो नदिया प्यारी कुछ कहती
जल-धारा से भरकर कानों में कुछ रस-सा वह घोल देती।
झींगुर-पपीहे-दादुर सभी ही नतमस्तक होते उनके आगे
तभी तो प्रीत की अलग-सी बात उनकी जुबां बयाँ करती॥
सौंधी-सौंधी-सी मिट्टी की महक हमारे नथुनों में भर जाती
जैसे प्रकृति के सौंदर्य की अनकही वार्ता सभी को समझाती।
शांत पहाड़ियाँ हों या फलों से लदे तरु या गगनस्पर्शी श्रृंग।
चहुँदिश में ही इसकी नैसर्गिक-सुंदरता की कथा कही जाती॥