प्रकृति (1) / राकेश कुमार पालीवाल
उस विराट दश्य की कल्पना से ही
रोमांचित हो जाता है रोम रोम
जिसे साक्षात देखा होगा कभी
हमारे पुरखों की कई पीढियों ने
संगम की पवित्र भूमि पर
गंगा जमुना के साथ सरपट दौडती
सरस्वती नदी को साक्षात देखना
विहंगम दृश्य रहा होगा धरती का
हम सौभाग्यशाली रहे कि बचपन में
देख पाये साफ शफ्फाक गंगा और
नहाने लायक मैली होती यमुना
दिल्ली मथुरा और आगरा शहर मे
अब किसी काम लायक नही रही यमुना
हम भी कसूरवार हैं इस महा पाप के
कौरव सभा के चुप्पी साधे बूढों की तरह
निर्लज्जता से देखते रहे यमुना का बलात्कार
चुपचाप एक पवित्र नदी को
गंदे नाले मे तब्दील होने दिया हम ने
हम ने चिंता नही की आगामी पीढियों की
जिन्हें गंगा भी नहीं मिलेगी साफ शफ्फाक
क्या आने वाले समय मे हमारी सभ्यताएं
नालों के किनारे ही जन्मेंगी पनपेंगी
मुझे भी यह प्रश्न परेशान करता है अक्सर
कि नाले की कोख मे पली आगामी पीढियां
फक्र करेंगी अपने पूर्वजों की किन महानताओं पर
अपने समय का इतिहास लिखते समय
कैसे कह पायेंगे हमारे वंशज
मेरा भारत महान