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प्रगतिधर्मा राग / रमेश रंजक
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एक मुटठी देह में हो
या पुराने गेह में हो
रोशनी सोने नहीं देती
रोशनी आवाज़ होती है
जब कभी नाराज़ होती है
ज़ुल्म को ढोने नहीं देती
रोशनी का नाम कुर्बानी
तोड़ देती बाँध का पानी
कालिमा बोने नहीं देती
बाजुओं को आग देती है
प्रगतिधर्मा राग देती है
हाथ में दोने नहीं देती