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प्रगति की होड़ न ऐसे मक़ाम तक पहुँचे / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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प्रगति की होड़ न ऐसे मक़ाम तक पहुँचे।
ज़रा सी बात जहाँ क़त्ल-ए-आम तक पहुँचे।
गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में,
चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे।
वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा,
गले के दर्द से केवल जुक़ाम तक पहुँचे।
न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ,
नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे।
जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यक़ीन कानों पर,
चले वो भक्त से लेकिन ग़ुलाम तक पहुँचे।
वतन कबीर का जाने कहाँ गया के जहाँ,
ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे।