प्रगति के बीज / महेश उपाध्याय
घिनौना कोढ़-सा फैला अरे सारे वतन में
लगी है एक दीमक-सी समूचे व्याकरण में
मसलता जा रहा तूफ़ान कलियों की कहानी
सचाई पर चढ़ा ही जा रहा रंग आसमानी
जगह कोई विषैली गन्ध से ख़ाली नहीं है
अन्धेरा ही अन्धेरा तल्ख़, उजियाला नहीं है
घुसी अन्धी अराजकता
खुले वातावरण में
गले तक पक्षधरता
भर गई है आचरण में
बताओ किस तरह कह दें अरे, आज़ाद हैं हम
नहीं हैं दास पर दासत्व के अनुवाद हैं हम
नहीं बन्दी, अदेखे बन्धनों में कस गए हैं
शिवाले राजनैतिक दलदलों में फँस गए हैं
घिरा है धर्म पर कोहरा
चलें किसकी शरण में
गढ़े हैं कील से काँटें
मनुजता के चरण में
उठी बाहें कभी आकाश ने खींची नहीं हैं
कभी सूखी नदी ने क्यारियाँ सींची नहीं हैं
सहारे भी सहारों के भिखारी हो गए हैं
ग़रीबों के अछूते दर्द भारी हो गए हैं
उगें कैसे प्रगति के बीज
ज़हरीली घुटन में
खिलें कैसे सुबह के रंग
स्याही के बदन में ।