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प्रजा दुखी है / हम खड़े एकांत में / कुमार रवींद्र
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प्रजा दुखी है
दोष नहीं राजा का कोई
बंधु, दैव-गति ऐसी - दुख है सबको व्यापे
अनरथकारी देवों को ही चढ़े पुजापे
समय बली है
सन्तों की आस्तिकता खोई
बढ़ी हाट-मति - चतुर बड़े सुख के व्यापारी
बेच रहे वे कुएँ-ताल के जल भी खारी
मौसम दोषी
हवा बह रही ज़हर-भिगोई
दिन मिठबोले सहज नेह के हुए पराये
अगियावैतालों ने जारे पुरखे साये
गई-रात
बिल्ली पड़ोस की रह-रह रोई