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प्रणति / अज्ञेय

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शत्रु मेरी शान्ति के-ओ बन्धु इस अस्तित्व के उल्लास के;
ऐन्द्रजालिक चेतना के-स्तम्भ डावाँडोल दुनिया में अडिग विश्वास के;
लालसा की तप्त लालिम शिखे-
स्थिर विस्तार संयम-धवल धृति के;

द्वैत के ओ दाह-
जड़ता के जगत् में अलौकिक सन्तोष सुकृति के;
अनाचारी, सर्वद्रावी, सर्वग्रासी-
ओ नियन्ता एक अभिनव शील के, व्रती मेरे यती संगी

हृदय के जगते उजाले, निवेदित इह के निवासी!
प्रणति ले ओ नियति के प्रतिरूप-जलते तेज जीवन के;
प्रखर स्वर विद्रोह के प्रतिपुरुष सात्त्विक मुक्ति के;
मेरी प्रणति ले, स्वयम्भू आलोक मन के!
प्रणति ले!

कलकत्ता, 17 अक्टूबर, 1946