प्रणय-अभियान कह लो / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
ठीक है! तुम जानकर अनजान रह लो।
जानती हो तुम! कि मैं क्या सोचता हूँ?
सोचता हूँ, काश! तुमको डाँट सकता।
रूठ जातीं तुम, मना लेता तुम्हें मैं,
प्रीत के क्षण, काश! तुमसे बाँट सकता।
गीत के अंतर्निहित थे भाव ये ही-
किंतु तुम निहितार्थ, को मधुपान कह लो।
ठीक है! तुम जानकर अनजान रह लो।
जानती हो तुम! कि मैं क्या देखता हूँ?
देखता हूँ मैं, कि तुम ये गा रही हो।
सुन न पाऊँ मैं, तुम्हारा राग मधुरिम,
इसलिये तुम दूर मुझसे जा रही हो।
नेह में अभ्यर्थना के, गीत हैं ये-
किंतु इनको मात्र, कलुषित गान कह लो।
ठीक है! तुम जानकर अनजान रह लो।
जानती हो तुम! कि मेरा ध्येय क्या है?
ध्येय बस इतना कि तुमसे नेह मिलता।
मैं समझ पाता, समझतीं तुम मुझे भी,
उर-उभय किंचित न इक संदेह मिलता।
गीत तो मेरे, सदा निस्पृह रहे हैं-
किंतु इनको तुम प्रणय-अभियान कह लो।
ठीक है! तुम जानकर अनजान रह लो।