प्रण आरो प्रेम / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
(गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर के 125 मोॅ जयन्ती पर हुनकोॅ ”विदाय-अभिशाप“ पढ़ी केॅ-)
कच:
देवयानि! देॅ हुकुम करेॅ प्रस्थान देवलोक ई दास।
गुरु-गृह बास समाप्त आय पाबी केॅ ज्ञान-विकास
आरो देॅ आशीष यहाँ पर पैने छीं जे ज्ञान;
चिर दिन रेॅ हेॅ साथ सुरजोॅ के अक्षय किरण समान।
देबयानि:
आरो कुछु मनोरथ?
कच:
नै-नै आरो कुछ नै!
देबयानि:
कुछ नै?
सासेची देखोॅ एक बेर फेरू सें मन में
पैने छोॅ दुर्लभ विद्या आचार्य प्रवर सें
दूर रही केॅ एक हजार बरस तक घर सें
साधी कठिन साधना।
जों मन के कोना में अंतःसलिला रं
सरसै छौं कोय कामना?
कच:
जिनगी आय कृतार्थ यहाँ बाकी नै कोनो चाह;
देबयानि:
आह!
सुखी आय तोरा सें के छेॅ तीन लोग में
गौरव सें ऊँचोॅ माथोॅ जा देवलोक में;
पारिजात के फूल बरसथौं;
मलकी केॅ युवतीं नवयुवतीं स्वागत करथौं
नन्दन वन में, एक हिलोरा उठथौं मन में
स्वर्ग-सुखोॅ में बिसरीं जैभेॅ यै कुटिया के पीड़ा-माया
यहाँ कहाँ छै देव-सुन्दरी? यहाँ कहाँ छै कंचन-काया?
जे छेलोॅ से सब अर्पी केॅ
कोशिश करलाँ अतिथि देव केॅ कष्ट छुअेॅ नै
हँसलोॅ मुखड़ा मलिन हुअ नेॅ!
कच:
कमल मुखो! हँसले आँखो सें आय विदा देॅ!
देबयानि:
हाय सखा! ई अमरपुरी नै, यहाँ प्यास छै
मन के गहन विजन में तृष्णा रास-रास छै
सुक्ख यहाँ हाथँ सें गेने कटु निसास छै
सूना घर में यहाँ बिसूरै लोर
हँसी कहाँ आसान? यहाँ तेॅ भिजलोॅ आँखी कोर।
खैर! हुअेॅ जे, झुट्ठे समय गमैला सें की लाभ
देवगण आशा में छौं
अट्टट ‘विदा’ हजार बरस के दू अच्छर के भाषा में छौं?
कच:
देबयानि! बोलोॅ एकरा में हमरोॅ की अपराध?
देबयानि:
एक हजार बरस तक
जे जंगल ने छायाबान करलखौं पल्लव सें
पंछी के पंचम तान सुनैलाखौं कलरब सें
ओकरा की एत्तेॅ सहज भाव सें छोड़ै के?
हँस्सी केॅ निर्दय सपना रं मुॅह मोड़ै के?
कच:
देवयानि! ई वनमूभी छै मातृभूमि रं हमरा
एकरोॅ गोदी में नया जनम पैने छीं
एकरोॅ कण-कण में नया गीत गैने छीं
रहतै याद जनम भर एकरोॅ प्यार
एकरोॅ पल्लव मर्मर हवा-बयार।
देबयानि:
लागै छै, एक अन्हार पसरलै जंगल पर
छोड़ी केॅ हवा निसास सोॅसरलै जंगल पर
तरु-तरु छै गहन उदास झरै छै पात
तोरोॅ बिछुड़न के सबकेॅ छै आघात।
यै बर के फेंड़ी पर बैठँ बेठी लेॅ अंतिम बेर
जेकरोॅ छाया में नित्तम दिन आबी केॅ बेर-सवेर
घोर नीन में सूतै छेला थकलोॅ गाय चराय
सब टा थकन मिटाबै छेल्हौं नेह-प्रीत बरसाय
पहुना रं सत्कार करी केॅ बीनी-पात डोलाय!
दू पल में की बिगड़ी जैथौं देवलोक के काम?
कच:
शस्य श्यामला वन भूमी केॅ बारंबार प्रणाम।
विदा-घड़ी में एक तरंग हिलोरै मन के कोर
एक-एक गाछी में भरलोॅ प्रियजन-भाव अथोर
कत्तेॅ पथिक यहाँ छोॅहीं में बैठी थकन मिटाय
डारीं-डारीं मुनिकुमार सब बलकल वसन सुखाय
दूर-दूर तक अपनेती के सहज विथरलोॅ जाल
मन केॅ बाँधै विदा-घड़ी में एक-एक के ख्याल।
देबयानि:
आरो आपनोॅ गाय?
भूली ने जैहोॅ घमंड में यै सुद्धी केॅ
अमृत दूध पिलाय वढ़ैलखौं जें बुद्धी केॅ
कच:
भूख-प्यास-श्रम-थकन भुली केॅ
कत्तेॅ बरस करलियै सेवा
नदी किनारें घूमी-घूमी
देलियै ओकरा घाँस कलेवा
दुपहरियाँ छाहीं में बैठी ऊ पगुराबै
मक्खर-माँछी केॅ मारै लेॅ पूछ हिलाबै
सब कुछ भूली होॅस्तै छेलियै देह समूचा
ममतामय आँखी सें देखै
कखनू हमरोॅ पौखरोॅ चाटै
रहतै याद सदाये ओकरोॅ रूप
अमृत सें भी मिट्ठोॅ जेकरोॅ दूध
पीवी केॅ विकसित भेलै ई प्राण?
प्राण दायिनी गौमाता निष्कपट नेहके खान।
देबयानि:
करिहोॅ आरो याद-
कल-कल छल-छल के सुर वाली बेनुमती केॅ!
कच:
जिनगी के कत्तेॅ छन मधुमय गीत बनी केॅ बहलोॅ होतै
यै प्रवास के मीत बनी केॅ बेनुमती ई रहलोॅ होतै
कत्तेॅ फूल-पराग समर्पित, कत्तेॅ कलरव कत्तेॅ गुंजन
एकरोॅ तीर-तरंग हृदय में लहर मारतें रहतै छन-छन।
देबयानि:
मीत! की आरो कोय सहचरी रहल्हौं तोरोॅ साथ?
जे प्रवास के दुक्ख हरै में
सतत निछावर रहलोॅ छौं दिन-रात?
कच:
प्रात के ऊषा समान अमर छै ओकरोॅ नाम
बसलोॅ छै ऊ साँस-साँस में जीवन-हवा समान।
देबयानि:
हाय सखा! छौं याद जराय्यो पैहलोॅ दिन के बात?
फूल कुॅवर रं ऐलोॅ छेल्हेॅ वै बनिका के पास;
गोरोॅ देह जनेऊ सजलोॅ, मुॅह पर हँसी आँख भी हँसलोॅ;
झिल-मिल सरल सुभाव भाव-लोकोॅ सें खँसलोॅ
आबी खाड़ोॅ भेल्हेॅ स्वप्न समान।
कच:
एक जनम में वै दिन के करना छै कठिन बखान।
नव तरुणी के रूप धरी केॅ जेना उषा किरण में नाही
तोड़ी फूल-कली नन्दन वन खाढ़ी पारिजात के छाहीं
हाथोॅ में साजी, आँखी में जीवन के संदेश
मोती के दाना टपकाबै टटका भिजलोॅ केस।
देखी तोरोॅ रूप अनूपम भुललाँ सभे अपान
निकली गेलै अनुनय के सुर में दिल के अरमान
”कृपा करी केॅ फूल चूनै के काम
दै देॅ हमरा सुन्दरि! लेॅ विश्राम।“
देबयानि:
फेरू कहल्हेॅ -”दैत्य पुरी में कोय नै तोरोॅ सिवाय“
देखेॅ लागलाँ कुछ छन तोरा सबकुछ हमें भुलाय।
परिचय देल्ह- ‘हम्में छेकॉ वृहस्पती के पूत;
विद्या सीखै लेॅ ऐलोॅ छीं गुरु शुक्र के पास
मदत करोॅ सुन्दरी! यहाँ, हमरा नै करोॅ निराश।“
कच:
शंका छेलै दानव गुरु ने स्वर्गोॅ के ब्राह्मण केॅ
शिष्य बनैतै की ठुकरैतै देवोॅ के परिजन केॅ
देबयानि:
मुस्कैली हरसैली हम्में गेलियै पिता नगीच
आगूँ हाथ पसारी देलियै-”दै देॅ एक टा भीख।“
हुनी कहलकै तोरा लेली की छै यहाँ अदेय?
पुचकारी दुलराय सभे टा ढारी देलकै नेह।
”शिष्य बनाबोॅ“-वृहस्पति के पुत्र यहाँ ऐलोॅ छै
लाज बुझैलै, तखनीं हुनियों भितर हैं मुस्कैलोॅ छै।
खिस्सा लागै छै कल के सब, एतना दिन के बात।
कच:
करने छोॅ उपकार बराबर हमरोॅ तों दिन-रात।
ईरा सें भरलोॅ दैत्यें ने तीन बेर बध हमरोॅ
करने छेलै, लेकिन तोंहीं प्राण घुरैने गेल्हेॅ
एकरोॅ याद सभे दिन हमरा याद बनी केॅ रहतै
जिनगी भर मन के कोना केॅ ‘कृतज्ञता’ सें भरते।
देबयानि:
कृतज्ञता? कुछ दुखै नै हमरा भुलभेॅ कृतज्ञता जों।
करलाँ जे उपकार नै तनियों चाहै छी प्रतिदान
इच्छा नै छेॅ बाकी कोनों, नै कोनो अरमान
लेकिन जों आनन्द-गीत के लहरोॅ में तिरलोॅ छोॅ
कोनों दिन साथोॅ में पुलकित-रोमांचित फिरलोॅ छोॅ
फूलोॅ सें भरलोॅ गाछो लग, कुंजोॅ के छाँहीं में
देखने छोॅ जों धरती कहियो सरङोॅ के बॉही में
बेनुमती के कातां बैठी कोनो संध्याकाल
सुख के छन हौ याद रखिहोॅ करने रहौं निहाल।
भूलोॅ कृतज्ञता केॅ राखोॅ याद जों कोनो गीत
कहियो लहरी केॅ मोहलखौं मन केॅ तोरोॅ मीत!
जेकरोॅ सुर पर तृप्त प्राण में एक पुलक जगलोॅ छौं
छन भर लेली सुख-धारा में रोम-रोम पगलोॅ छौं
कहने छोॅ आनन्द मगन-”देखने छीं सुन्दर आय“
गेंठी में बान्ही राखोॅ नै ओकरा दिहोॅ भुलाय।
कत्तेॅ दिन यै वन-प्रान्तर में नव अषाढ़ के मेघ
गढ़िया नील जटा लटकैने धरने ऐल्हौं डेग
उमड़ी-घुमड़ी केॅ बरसैलखौं कत्तेॅ दिन रसधार
कत्तेॅ दिन हिरदै के कण-कण में सरसैलखौं प्यार।
कत्तेॅ दिन बसन्त के धनुषोॅ पर फूलोॅ के बाण
देखी केॅ उत्साह-पुलक सें लटसट भरल्हौं प्राण
रौद-बतासोॅ में दुपहरियाँ फूल-कली के गंध
कुंजोॅ के बाँहीं में गैल्हेॅ कत्तेॅ गुन-गुन छन्द
कत्तेॅ साँझ-बिहान अन्हरिया बगबग उजरोॅ रात
नया-नया हिलकोरा मारै वाला कत्तेॅ बात
चिरदिन रहतै यै बनिका में चित्र पटीरं टँगलोॅ
जेकरोॅ रंगोॅ में जिनगी के छन-छन कण-कण रंगलोॅ,
वै सब छन के नेह-प्रीत सुन्दरता कुछ नै याद?
बस निट्ठा उपकार? नै आरो कुछ जिनगी के स्वाद?
कच:
आरो जे छै सखि! ऊ छै मन के गोपन में रसलँ
लहुवोॅ के धारोॅ रं भीतर बहतें होलोॅ बसलोॅ।
फाड़ी सभे देखैयै केना ओकरा बाहर आनी?
देबयानि:
प्रिय; जानै छीं तोरोॅ हिरदै के सब मर्म-कहानी!
हमरा हिरदै मंे गूँजै छै तोरोॅ मन के रोर
कत्तेॅ बेर चमकलाँ देखी केॅ आँखो के कोर
नजरी सें उझली देने छोॅ सब टा मन के भाव
हमरा प्राणोॅ में रचने छोॅ प्रियतम एक पड़ाव
नै जा छोड़ी केॅ जीवनधन! सुख नै यश-गौरव में
सूनोॅ-सूनोॅ स्वर्ग लोक बदली जैथौं रौरब में
स्वर्ग रचैबै हमरा दोनों बेनुमती के तीर
कुंज-कुंज में खिललै दोनों हिरदै मगन-अधीर
निर्जन वन के पात-पात में लहरी उठतै प्रीत
तोरोॅ मन के भाव सभे हम्में जानै छी मीत!
कचः
नै-नै देबयानि! ई नै।
देबयानि:
की नै?
हम्में जैं देखने छीं मोॅन तोरोॅ, छलना की?
झूठ के कल्पना, मृगतृष्णा, सपना की?
छिपाबोॅ नै प्रेम अन्तर्यामी होय छै मीत!
फूल नुकाबेॅ पत्ता में, नै छिपतै गमक नै प्रीत।
कत्तेॅ दिन उठैने छोॅ मूँ, देखने छोॅ हमरा
सुनथैं हमरोॅ आहट काँपलोॅ छौं हियरा
सब साफ झलकलोॅ छै गिरलोॅ जेना हीरा
रोशनी छिपाबै में असमर्थ जेना धूरा।
सब देखने छीं तहीं आय पकड़ैलोॅ छोॅ मीत!
नै छौं कोय उपाय है बान्हन काटै के हमरोॅ
केकरा छै खेमाता, आबेॅ इन्द्रो नै तोरँ।
कच:
सुबयना!
हजार बरस तक यै दैत्य पुरी में
यही लेली करने छीं साधना?
देबयानि:
तब की, खाली विद्या लेली लोगें करै छै अराधना?
नारी लेली नै कोनो साधना?
विद्या की एत्तेॅ दुर्लभ? प्रेम की सुलभ?
हजार बरस तक तोहें करने छोॅ साधना
कथी लेली, जानै नै छोॅ?
एक तरफ विद्या, दोसरोॅ तरफ हम्में मानै नै छोॅ?
कखनू विद्या केॅ, कखनू हमरा हियाय केॅ देखने छोॅ
अनिश्चित मनोॅ में दोनों केॅ समे-सम लेखने छोॅ
आय एक साथें दोनों ऐलोॅ छीं तोरा पास
केकरा अपनाय छोॅ, केकरा करै छोॅ निराश?
बोलोॅ सखा! बोलोॅ, मनोॅ के भेद खोलोॅ
साहस करी केॅ कही देॅ-”विद्या में यश में, सुख नै छै
देबयानि! तोरोॅ रं सुन्दर मुख नै छै,
तोंहें मूर्तिमती सिद्धि तोरोॅ करै छीं वरण।“
एकरा में नै कोय लाज, नै शरम।
प्रेमातुर नारो के मोॅन,
हजार बरसोॅ के साधना के धोॅन।
कच:
शुभे! देव आगूँ करने छीं प्रण महा संजीवनी विद्या सीखै के
सीखी केॅ लौटै के
ऊ प्रण हमरा कखून नै भुलाय छेॅ
प्राणोॅ केॅ जगाय छेॅ
आबेॅ सफल होलोॅ छेॅ जीवन
दोसरोॅ कोनो स्वार्थ सें नै भरलोॅ छेॅ मोॅन।
देबयानि:
धिक् भुट्ठा धिक्!
गुरू घरोॅ मंे विद्या सें कुछ नै चाहने छोॅ अधिक?
यै निर्जन में खाली छात्र बनी केॅ रहलोॅ छोॅ?
सब कुछ तेजी विद्या के धारोॅ में बहलोॅ छोॅ?
तबेॅ वन-वन घूमी सुन्दर-सुन्दर फूल चुनी केॅ
माला गाँथी कैहने दै छेल्होॅ मुस्की केॅ
यै विद्या हीना केॅ?
भोरे साजी लैकेॅ खाढ़ो होथैं
पढ़बोॅ छोड़ी कैहने दौड़ै छेॅल्होॅ?
हुलसी-हुलसी फूल सुगंधित
पूजा खातिर कैहने तोड़ै छेल्हेॅ?
दुपहरिया में बच्चा गाछ पटाबै वक्तीं
हमरा थकलोॅ देखी केॅ कैहने सब कुछ तेजो
बेसुध पानी आनै छेल्हेॅ?
पढ़बोॅ-लिखबोॅ छोड़ी कैहने हमरोॅ मृगा चराबै छेल्हेॅ?
प्रेमातुर आँखी के पलोॅ रं बेसुध चुपचाप
उतरै छेलै नदो-तीर पर जखनी अन्हार
तखनी तोंहें कैहने हमरा
स्वर्गोॅ में सिखलोॅ संगीत सुनाबै छेल्हेॅ?
जों खाली विद्या लै ऐल्हेॅ कैहने हृदय चोरैल्हेॅ हमरोॅ?
आबेॅ बुझलाँ-
पिता के हृदय में बास बनाबेॅ लेली हो
हमरा तोंहें बसोॅ में करल्हेॅ।
साधी आपनोॅ काम आयछोॅ पूर्ण मनोरथ
आरो हमरा लेली चुनने छोॅ ‘कृतज्ञता’ के सुन्दर पथ।
कच:
आह! मानिन
सत्य सुनी केॅ की मिलथौं सुख!
धरमें जानै छै- आत्मवंचना नै
प्राणपन सें, सच्चाई सें तारे सुख खातिर
हम्में सब कुछ करलाँ-जेकरोॅ दण्ड विधाताँ दै छेॅ।
सोचने छेलियै-नै बतलैबै केकर हौ
मन के ई गोपन कथा
कहला सें की लाभ? कोन उपकार?
ऊ हमरोॅ नितान्त अपनापन-सुख-दुख के छन!
कोन तर्क सें कहबै जे नै करलियै प्रेम?
लेकिन प्रेम करलियै को नै-एकरोॅ तर्क व्यर्थ छै
सुर पुर के प्रण पूरा करना ही हमरोॅ जिनगी के अर्थ छै।
स्वर्ग-स्वर्ग रं नै लागेॅ जों मन केॅ कर अधीर
घायल मृग रं मन घूमेॅ जों बन-बन बान्ही पीर
अमिट प्यास सें तड़पी-तड़पो प्राण सहेॅ संताप
तय्यो जाबेॅ पड़तै मानिन! स्वर्गलोक चुपचाप।
करी समर्पण महा सजीवन विद्या अमर पुरी केॅ
जीवन सार्थक होतै हमरोॅ नया सुरत्व वरी केॅ
देवयानि! लाचार हमें छीं करोॅ माफ अपराध
देबयानि:
माफी कहाँ हृदय में हमरा? फुफकारै छेॅ साध
तोंहें तेॅ गौरव सें भरलोॅ देवपुरी में जैभेॅ
सिद्धि साधना के पाबी केॅ अपना में न समैभेॅ
हमरा छेॅ की काम? कोन गौरव-गरिमा मिलना छेॅ?
लक्ष्य हीन एकाकी कुररी रं बन-बन फिरना छेॅ
घुरतै जन्नेॅ आँख तन्है यादेॅ के लहर उमड़तै
छेदी बरंबाार करेंजोॅ हुलतै फरु हुमड़तै
निष्ठुर! तोंहें कोन दिशोॅ सें पथिक बनी केॅ ऐल्हेॅ?
हमरोॅ हिरदै के छाया में में सट्टी केॅ सुस्तैल्हेॅ
छीनी लेल्हेॅ जिनगी भरलेॅ चैन करी केॅ छलना
आबेॅ रहलोॅ की छोड़ी केॅ रोना आरो कलपना।
आय छमा नै विदा घड़ी में ई सराप छेॅ हमरोॅ
जे विद्या लेॅ छोड़ी रहलोॅ छोॅ ऊ विद्या तोरोॅ
भार बनो केॅ जीवन भर रह थौं तोरा साथोॅ में
कोनो नै परभाव प्रयोगोॅ के तोरा हाथोॅ में।
सिखलाबेॅ पारै छोॅ बस एत्ते अधिकारी तोंहें
ठुकरैने छोॅ नारी केॅ भीगोॅ लाचारी तोंहें!
कच:
सुखी रहोॅ तों प्राण सखी! भूली केॅ सब टा याद
हमरोॅ ई वरदान मिलेॅ जीवन में गौरव-स्वाद।