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प्रतिकार सम्वेदनाओं का / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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वक्त के दिये हुये आँसुओं को पोंछने
कल तुमने मुझे शब्दों की हथेलियाँ भेजी थीं
और अक्षरों के छोटे-छोटे आँचल फैलाकर
मेरी आँखों के बहुत से आँसू झेल लिये थे
तुमने मेरा दर्द तब बाँटा, जब
दुर्भाग्य से मुझे वैधव्य
और दुनिया ने बड़े-बड़े दंश दिये थे।
मैं कल भी अकेली थी
मैं आज भी अकेली हूँ।
तुम्हारे शब्दों की हथेलियाँ
वैसी की वैसी फैली हुई हैं।
पर अब मेरी आँखों में आँसू नहीं हैं
तुम्हारी आँखों में हैं
अक्षरों के आँचल मुझे नहीं, तुम्हें चाहिये
मैंने तुम्हारा ऋण
सारा का सारा लौटा दिया है।
तुम्हारी सम्वेदनाओं के बदले मैंने
तुम्हें वेदनाएँ दी हैं, दर्द दिया है
तुमने कभी शब्दों की हथेलियाँ भेजी थीं
आज मैंने तुम्हें शब्दों तक से आहत किया है
मैं नहीं जानती मैंने ऐसा क्यों किया है।
क्या तुम जानते हो?