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प्रतिक्षा / राजेश अरोड़ा
Kavita Kosh से
मैं प्रतिक्षा करूंगा
तुम्हारे खुलने की
जैसे सुबह के साथ
खिल उठते हैं फूल
और कलरव करते हैं पंछी
या लेता है आलाप
कोई गायक
और तुम्हारे द्वारा भूलने की
उन दिनों को
जब दिन भी रात जैसे अंधेरे होते थे
चिलचिलाती धूप
त्वचा को ही नहीं
सोचो को भी झुलसाती थी
शहर के शोर में
दब जाती थी
बुलबुल के अपने प्रिय को
पुकारने की आवाज
मैं प्रतिक्षा करूगां
नदियों के फिर से निर्मल होने की
जंगलों के हरा होने की
एक बीज से अंकुर फूटने की
मैं प्रतिक्षा करूगां
तुम्हारे फिर से ताज़ा होने की।