प्रतिज्ञा / राघवाचार्य शास्त्री
हम नव स्वतन्त्रयुग सृजन करब।
उच-नीच भूमि पथ अति शंकुल
गिरि गह्वर, वन गलि बड़ वंकुल
वन वथिक व्याघ्र शूकर शंवुक
दन्तार नाग, मणिधर चुंचुक
पथ चलब निशंक, नहि हिचकि रहब।
सर, सरिता, सागर अगम तरल,
बहइत निशिवासर भरल पुरल,
तृण-तरु थल काटल कठिन जंगल
कहूँ सरल सोझ, कहुँ कठिन बनल
कहुँ भीमकाय कलि-ग्राह प्रबल,
दुखदायक ओसक अंशु ठरल,
दभांकुर भूतल तीक्ष्ण उगल,
सिकताकण दोखरा दोखरइत पड़ल,
परवाहि तकर की, डटति चलब।
उनचास पवन कय प्रबल वेग
सागरमे क्षिति लय ससरि चलय,
तप्तांश तप्त ज्वाला गिरि सङ
बड़वानल धहधह धधकि पड़य,
तमघोर प्रलयकारी वर्षा
घन मुसलधार अविरल वरिसय,
अथवा हिमगिरि गररि गरल-
मिश्रित उडुपति घरघर परसय,
किन्तु पैर नहि पाछु करब।
ललकि ललकि हम झुण्ड-झुण्ड,
दुश्मनसँ भूतल रुण्ड-मुण्ड,
गजराजक काटब लम्ब शुण्ड,
पल कर्दम कय पुनि रक्त कुण्ड
तोर तर्पण पूजन करब, तरब।
उत्साह धैर्य बल विक्रमसँ
मुह मोड़ब नहि उद्यम पथसँ
प्रति द्वन्द्व मचा विपतिकदलसँ
हम डपटि भिड़ब रिपु रुज गणसँ
लज्जित नहि जननिक जठर करब।
लय वायुयान पर अरिदल बम
तड़-तड़ खसबय पुनि धम धम धम
परमाणु भयावह गोलाबम,
छोड़इत ज्वाला दम दम दम दम
भय नहि आपति सब सहन करब।
हम नव स्वतन्त्र युग सृजन करब।