भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रतिध्वनि / अरुण देव
Kavita Kosh से
एक शाम
भीतर की उमस और बाहर की घुटन से घबराकर
निकल पड़ा नदी के साथ-साथ
नदी जो नगर के बाहर
धीरे-धीरे बहे जा रही है
अब यह जो बह रहा है वह कितना पानी है
कितना समय कहना मुश्किल है ?
बहरहाल शहर की चमक और शोर के बीच
उसका एकाकी बहे जाना
मुझे अचरज में डाल रहा था
जैसे यह नदी इतिहास से सीधे निकल कर
यहाँ आ गई हो
अपनी निर्मलता में प्रार्थना की तरह
कोई अदृश्य पुल था जो जोड़ता था
बाहर के पानी को भीतर के जल से
कि जब पुकारता था बाहर का प्रवाह
टूट गिरता था अन्दर का बांध
जो बाहर था
मुक्त कर रहा था भीतर को