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प्रतिध्वनि / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
बहुत गहरा है
तुम्हारा अन्तःकरण
तभी तो
वर्षों बाद ही
लौट पाती है वहाँ से
प्रतिध्वनि मेरे मौन की
किन्तु जब आती है
तो देर तक
निनादित होता रहता है त्रिलोक