प्रतिनिधि दोहे / सत्यम भारती
कैसे सुधरे देश में, हलधर के हालात।
खेतों पर मँडरा रही, गिद्धों की बारात॥
जनता सोचो तो ज़रा, क्यों है यह परिणाम।
बोकर पेड़ बबूल का, कब मिलता है आम॥
जंगल से अब गाँव का, अलग कहाँ किरदार।
नोच रहे हैं देह को, कुत्ते, गिद्ध, सियार॥
आँखों का पानी मरा, मरी देह की धूप।
ऐसे ही सत्ता नहीं, दिखती है विद्रूप॥
ढाल कहीं पाया नहीं, मिले तीर-तलवार।
जीवन भर करते रहे, जख्मों का व्यापार॥
कोयल पर प्रतिबंध था, कूक हो गई ढेर।
कांव-कांव कर करती रही, दिन भर ही मुंडेर॥
अखबारों के शब्द अब, ऐसे हुए समर्थ।
सीधी-सीधी बात के, टेढ़े-मेढ़े अर्थ॥
इधर-उधर वह फेंककर, अपवादों की पीक।
आज खिंचना चाहते, वर्तमान की लीक॥
जुगनू के मन में बसा, कैसा झूठा दंभ।
बोल रहा उससे यहाँ, हर दिन का प्रारंभ॥
लोग सुन रहे हैं यहाँ, हुआ-हुआ के बोल।
फिर भी उसको शेर का, बांट रहे हैं मोल॥
क्या है, बिल्कुल व्यर्थ है, उसका यह उत्साह।
सूरज को रूमाल में, रखने की है चाह॥
कलियाँ भौरों से करें, आख़िर कैसे प्रेम।
मन में पैठी वासना, खेले हर दिन गेम॥
कभी बनी उपमान वह, गढ़े नवल प्रतिमान।
फिर भी निर्बलता रही, नारी की पहचान॥
सूरज के तो पास है, रेशम और कपास।
जुगनू को मिलता रहा, कैक्टस औ सल्फास॥
तन नफरत की कोठरी, मन है कोरा काठ।
सबको वही पढ़ा रहा, मानवता का पाठ॥
जिस्म व रूह करने लगें, आपस में जब बात।
आए जब सज कर इधर, यादों की बारात॥
कंक्रीटों के वन हुए, शहर बन गया खेत।
मानव जहरीला हुआ, नदी बन गई रेत॥
साथी जिसका कर्म हो और हृदय हो शुद्ध।
पहने करुणा का कवच, बनता गाँधी, बुद्ध॥
रोज़ मथा दिल का दही, निकला तब नवनीत।
यूँ कोई चलते राह में, बने नहीं मनमीत॥
जलियाँवाला बाग से, हों न पुन: हालात।
बंदूकें बोएँ चलो, करें नई शुरुआत॥
दिन मुर्दाघर हो गये, रातें हुईं मसान।
इस कोरोना-काल का, कैसे करूँ बखान?
घर में क़ैदी हो गये, तबसे उजले बाल।
जबसे शहरी रम पिए, बहक गया चौपाल॥
मना नहीं फिर गाँव में, दीपों का त्योहार।
जनप्रतिनिधि के द्वार पर, लेकिन वंदनवार॥
'कुछ बदले' हमने कहाँ, इसका किया प्रयास।
सदियों से हम जी रहे, हत्या का उल्लास॥
सूखे का इल्जाम फिर, दिया हिरण पर डाल।
भूख मिटाई शेर ने, इसी तरह फिलहाल॥
पैसा मांगा बाप से, लेनी मुझे किताब।
यारों संग चलता रहा, चखना और शराब॥